पाठशाला का उद्देश्य :
जब से पाठशाला की शुरुआत हुई है तब से पाठशाला का एकमेव उद्देश्य रहा है "बच्चों में अच्छे और सच्चे संस्कार विकसित करना"
आखिर हम क्यों पाठशाला में संस्कार देने का उद्देश्य रखते?
क्या संस्कार विद्यालयों, महा विद्यालयों और विश्व विद्यालयों में नहीं दिए जाते जो हम अलग से पाठशाला लगाने का भरपूर प्रयास करते हैं?
इसका सरल और सीधा जबाब है कि शिक्षा हमेशा रोजगारउन्मुखी होती है उसका काम जीवन-यापन के लिए आजीविका उपलब्ध कराना होता है मगर संस्कार हमारे व्यवहार को प्रदर्शित करता है। मेरा व्यक्तिगत मानना यह है कि शिक्षा का उद्देश्य नौकरी या व्यापार ही होता है।हमें अच्छा इंसान हमारे संस्कार बनाते हैं।
यही फर्क है शिक्षा और संस्कार में। इसलिए संस्कार के लिए हम पाठशाला जाते हैं और पाठशाला का उद्देश्य बच्चों में संस्कार विकसित करना होता है।
अब प्रश्न उठेगा कि कैसे "संस्कार" बच्चों को दें?
सुबह उठकर हमारी दिनचर्या कैसी होनी चाहिए ये स्कूल डिसाइड नहीं करते बल्कि पाठशाला डिसाइड करती है। सुबह से उठकर णमोकार मंत्र को पढ़ना, शौचादि क्रियाओं से निपटकर नहा-धोकर शुद्ध वस्त्र पहनकर मंदिर जाना, बुजुर्ग से लेकर बच्चों तक को "जय जिनेन्द्र" कहकर जिनेन्द्र भगवान का स्मरण स्वयं करना और दूसरों का कराना ये संस्कार कहलाते हैं।
कुछ संस्कार हमें अपने माँ बाप के खून (DNA) से मिलते हैं। जैसा उनका स्वभाव रहा है जैसे उनके संस्कार रहे हैं वो हम में भी आ जाते हैं मगर उनको विकसित करने का काम हमारी पाठशालाएं करती हैं।
पाठशाला का उद्देश्य जैनधर्म के संस्कारों को बच्चों में डालने का है। उनमें विवेकपूर्वक खुद निर्णय लेने की क्षमता विकसित करना ही पाठशाला का कर्तव्य है। हम बच्चे से बार कहते रहेंगे कि "मंदिर जाओ, मंदिर जाओ" बच्चा 1 हफ्ते तक जाएगा मगर फिर वो मंदिर नहीं जाएगा लेकिन जब हम उसे ये बताएंगे कि "मंदिर क्यों जाना चाहिए" "मंदिर जाने से क्या होता है" हम मंदिर भगवान जैसा बनने के लिए जाते हैं ये बताने का काम हमारी पाठशाला करती हैं। यद्यपि ये बातें बच्चे की माँ भी बता सकती हैं मगर माँ के लाड़ प्यार के आगे सब एकमेक हो जाता है उसके लिए पाठशाला और उसके कठोर शिक्षक को होना सबसे जरूरी है।
लाड़-प्यार के कारण आज बच्चे घर में संस्कार नहीं सीख पाते इसलिए पाठशाला का उद्देश्य संस्कार देना होना चाहिए। आज जैन बच्चे ही कम उम्र में नशे के आदी होने लगे हैं। सिगरेट, शराब का सेवन बड़े शौक से करने लगे हैं। इन्हें छोड़ने की सीख विद्यालय सूचनात्मक तौर पर देते हैं मगर पाठशाला इनसे कैसे दूर हों इसका उपाय भी करती हैं।
वर्तमान समय को सबसे बड़ी विडंबना ये है कि बच्चे जिनेन्द्र देव को तो मानते हैं मगर जिनेन्द्र देव की एक नहीं मानते। जिन का मार्ग क्या है उनका सच्चा उपदेश क्या है यह जब तक पाठशाला के माध्यम से बच्चों को समझाया नहीं जाएगा तब तक जैन धर्म के सच्चे स्वरूप को समझ नहीं पाएंगे।
पाठशाला को पढ़ाने का उद्देश्य नई जनरेशन के अनुसार होना चाहिए। भाषा उनके अनुसार हो ये जरूरी है मगर सिद्धांतों में कोई फेरफार संभव नहीं है। आज के बच्चों को न समझ पाने का कारण जनरेशन गैप है अगर हमें उसको भरना है तो हमें बच्चों के स्तर पर आकर सोचना होगा और फिर पाठशाला का उद्देश्य स्थापित करना होगा जिससे बच्चों में अच्छे संस्कारों की नींव रखी जा सके।
जब हम पाठशाला पढ़ते थे तब एक सबसे अच्छी योजना शुरू हुई थी "कंठपाठ योजना"
जिससे हमने हर स्त्रोत्र, पाठ, को कंठस्थ कर लिया था। उन सभी कंठस्थ चीजों का मतलब उस समय नहीं पता था मगर अब जब उनको अर्थ सहित पढ़ते हैं तो समझ आता है कि उस समय हमने एक बहुत अद्भुत काम को किया था। जब हमारे पास जिनवाणी उपलब्ध नहीं होती फिर भी हम कंठस्थ पाठ को दुहरा लेते हैं और हमारा चित्त निर्मल हो जाता है। बच्चों को मेरी भावना, पाठ, स्त्रोत कंठस्थ कराना भी पाठशाला का उद्देश्य होना चाहिए। और जब हम प्रदर्शन को छोड़कर पाठशाला के प्रयोजन को ध्यान रखेंगे तो निश्चित रूप से पाठशाला बच्चों के लिए भविष्य में स्मरण योग्य होगी। किसी भी प्रकार के दिखावे में या प्रतिस्पर्धा में न आकर अपने अपने विजन को क्रिस्टल क्लियर रखना होगा।
स्कूल हमें माता-पिता को अंग्रेज़ी में क्या कहते हैं ये तो सिखाते हैं मगर माता- पिता का सम्मान करना, बड़े-बुजुर्गों के पैर छूना ये सिर्फ हमारे संस्कार दर्शाते हैं और वह संस्कार ही बच्चों को देना पाठशाला का ध्येय होना चाहिए।
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पाठशाला के अध्यापक की विशेषताएं- (व्यक्तिगत अनुभव)
पाठशाला की एक बहुत महत्वपूर्ण कड़ी होती हैं पाठशाला के अध्यापक!
अध्यापक की सामान्य विशेषताएं तो सब जानते हैं कि कैसे होना चाहिए मगर पाठशाला पढ़ाने वाले अध्यापक कैसे हों ये ध्यान देने योग्य बात है
1. अध्यापक जो विषय पढ़ा रहा है या जैसा पढा रहा है उसको भी वैसा होना चाहिए। आज कमी यही है कि कथनी और करनी में अंतर दिखाई दे रहा है।
जैसे मैं भोपाल की पाठशाला में पढ़ाता हूँ और मैन बच्चों को सिखाया कि आलू नहीं खाना चाहिए और दूसरे ही दिन चांट के ठेले पर चांट खाने पहुँच गया तो बच्चों पर क्या संदेश जाएगा इसलिए शिक्षक को भी उन चीजों का पालन करना चाहिए जो वो बच्चों को सिखाना चाहता है।
2.अध्यापक की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता होती है उसकी "पढ़ाने की शैली"
अध्यापक के पढ़ाने की शैली ही उसे बच्चों से जोड़ती है। अगर अध्यापक रोचक ढंग से कठिन विषयों को भी सरलता और रोचकता से पढ़ा रहा है तो बच्चे भी शिक्षक का साथ देते हैं।
3. शिक्षक को अपना विषय पढ़ाते वक्त नए-नए उदाहरणों को जो वर्तमान से रिलेट करते हों बच्चों को बताकर उसके माध्यम से विषय को समझाना चाहिए।
4. शिक्षक पढ़ाने वाले विषय को एक बार अगर खुद पढ़कर आता है समझ कर आता है तो बच्चों को उदाहरण के साथ समझाने में आसानी होती है।
5. अध्यापक को बच्चों के साथ ज्यादा फ्रेंडली नहीं होना चाहिए नहीं तो बच्चें फिर उनकी बात नहीं सुनते और सिर पर चढ़ने लगते हैं।
6 अध्यापक अगर बच्चों को एक्शन के साथ पढ़ाये तो बच्चे जल्दी सीखते हैं। पाँच पाप के नाम अगर एक्शन के साथ पढ़ाते हैं तो बच्चों को जल्दी याद हो जाते हैं और बच्चे पाँच पाप के नाम भूल भी जाएं फिर भी एक्शन उनको याद रहती है जिससे वो पाँच पापों के मूल भाव को समझ जाते हैं और इन्हें छोड़ने का, त्यागने का प्रयास करते हैं।
7. शिक्षक समय का पाबंदी होना चाहिए क्योंकि अगर शिक्षक समय का पाबंदी नहीं होगा तो बच्चों पर गलत प्रभाव जाता है इसलिए बच्चे बोलते हैं कि "ये तो लेट ही आते हैं"
8. एक वाक्य दुहराया जाता है कि वो शिक्षक बहुत इम्पोर्टेन्ट होता है जो विषय से हटकर भी चीजें बताता है सिखाता है जो हमारे जीवन के लिए बहुत जरूरी होती हैं।
आज बच्चों में आत्मविश्वास की बहुत कमी देखी जाती है जिससे बच्चे किसी भी बात को कहने में हिचकिचाते हैं वो सही बात भी बोल नहीं पाते इसलिए शिक्षक का ये कर्तव्य है कि वो बच्चों में आत्म विश्वास विकसित करे। बच्चों को संस्कारित, तनावमुक्त रखने का भी गुण शिक्षक में होना चाहिए।
9. अध्यापक की पढ़ाने की शैली बहुत प्रभावित करती है। जब बच्चे उनसे कनेक्ट करने लगते हैं तो यही कहते हैं कि हमें इन टीचर से पढ़ना है ये अच्छा पढ़ाते हैं। अध्यापक को हँसमुख, थोड़ा मज़ाकिया, और थोड़ा फ्रेंडली होना चाहिए। क्योंकि शिक्षक अगर गुस्सेल होगा बात-बात पर गुस्सा करेगा तो बच्चे शत प्रतिशत उनसे नहीं पढ़ना चाहेंगे। इसलिए शिक्षक को बच्चों को हर तरह से काबू में रख सके ऐसा होना चाहिए।
● वर्तमान समय अनुसार किस पद्धति से बच्चों को पढ़ाया जाए-
समय बदल रहा है तो समय के साथ पढ़ाने के तरीके भी बदल रहे हैं और हमें भी उन तरीको पर ध्यान देना चाहिए।
1. बच्चों को अब आसानी से पढ़ाने का आसान तरीका है "प्रोजेक्टर"
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प्रोजेक्टर के माध्यम से हम ppt द्वारा बच्चों को पढा सकते हैं। कुछ शिक्षाप्रद कहानियां दिखा सकते हैं। क्योंकि बच्चे बोलने से ज़्यादा देखने से सीखते हैं। पानी छानने की विधि, मैगी क्यों नहीं खाना चाहिए आदि ऐसी चीजें जब हम बच्चों को दिखाते हैं तो वो इनसे ज़्यादा प्रभावित होते हैं और सीखते हैं।
2. पाठशाला पढ़ाने की पद्धति में सबसे पहला लक्ष्य पाठशाला के माध्यम से जीवन जीने का तरीका कैसे विकसित करें ये होना जरूरी है।
3. हर दिन या हर हफ्ते हमारे महापुरुषों की एक शिक्षाप्रद कहानी बच्चों को जरूर सुनाए या प्रोजेक्टर के माध्यम से दिखाए जिससे बच्चों में कठिन परिस्थितियों में भी जीवन जीने का तरीका विकसित होता है।
4. छोटे बच्चों को एक्शन से पढ़ाना बहुत अच्छी पद्धति है। इससे बच्चों को चीजें जल्दी याद हो जाती हैं। शब्द भूल भी जाएं मगर उनके एक्शन याद रहते हैं
5. बच्चों को आसानी से पढ़ाने के लिए विषय कितना भी कठिन हो उसको सरल भाषा में पढ़ाना चाहिए। नए-नए उदाहरण खोजकर जो वर्तमान में अत्यधिक प्रचलित हों उनके माध्यम से किसी भी बात को, सिद्धान्त को आसानी से समझाया जा सकता है।
6. अगर किसी आपातकाल के कारण पाठशाला नहीं लग पा रही हो तो ऑनलाइन पढ़ाने की व्यवस्था करनी चाहिए। zoom एप के जरिये भी अब ऑनलाइन पाठशाला पढ़ाना संभव और आसान हो गया है।
7. पाठशाला में पढ़ाने के लिए बच्चों का मनोबल बढ़ाने उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए पुरुस्कार की पद्धति सबसे अच्छी है।
पंडित टोडरमल जी ने भी मोक्षमार्ग प्रकाशक के चरणानुयोग के व्याख्यान के विधान में लिखा है कि "लालच देकर भी धर्म में लगाया जाता है" यह बिल्कुल सत्य कथन है। छोटे छोटे बच्चों को पुरुस्कार का लालच देकर धर्म की बात समझा सकते हैं लालच बुरी बला है ये भी समझा सकते हैं। टोडरमल जी आगे कहते हैं कि "कड़वी दवाई को बताशे में रखकर बच्चों को पिलाया जाता है" वैसे ही हम जैनधर्म की सच्ची बातों को बतासे अर्थात पुरुस्कार देकर समझा सकते हैं। जिससे बच्चों में भी विषय को समझने का उत्साह और रुचि बरकार रहती है। फिर समझ बढ़ते ही लालच छोड़कर बच्चे विषय पर ध्यान देते हैं।
8. पाठ, स्त्रोत आदि कंठस्थ कराना बहुत जरूरी है जिससे बच्चों की स्मरण शक्ति भी तेज होगी और जुबां पर जिनेन्द्र देव का नाम रहेगा चाहे कैसी भी परिस्थितियां हों।
9. बच्चों के लिए सबसे उदासी का क्षण वो होता है जब हम उनकी तुलना एक दूसरे से करने लगते हैं। सीख देना अलग बात है मगर दूसरे बच्चे से तुलना करके उसको नीचा दिखाना ये सबसे बड़ा अपराध है फिर वो बच्चा कभी प्रश्न नहीं पूछेगा और अपने आप को कमजोर ही समझेगा।
10. सप्ताह के अंत में खेल- प्रतियोगिता जरूर होना चाहिए जिससे बच्चों को मोटिवेशन भी मिलता है। खेल जैन धर्म से सम्बंधित होना चाहिए और बहुत हैं।
तथा रविवार के दिन पूजन और भक्ति करने का संस्कार भी बच्चों को देना चाहिए।
धन्यवाद! जय जिनेन्द्र!
सोमिल जैन "सोमू"
ये ब्लॉग अभी अधूरा है और इसे पूरा आप बनाएंगे। कुछ बातें जो आपके दृष्टिकोण से इसमें बाक़ी रह गईं हैं वो आप लिख भेजिए या कमेंट बॉक्स में लिख दीजिये। आपके अनुभव और विचारों को इस ब्लॉग में आपके नाम के साथ संलग्न किया जाएगा जिससे पाठशाला को और भी मजबूत कैसे बनाये उससे सीख मिलेंगी।
1.
पाठशाला तो बच्चों को पढ़ा देगी पर पाठशाला भेजने का काम परिजन का होता है । आज कल माता पिता ये बोलकर नही भेजते की एक ही दिन तो छुट्टी मिली है बेचारे को आज नही खेलेगा तो कब खेलेगा । दोपहर में आता है फिर खाता है फिर होम वर्क फलाना ढिमकान वाले बहाने तैयार है । आज अगर हम इस एक दिन का सोचेंगे तो बच्चे हमारे बूढ़े दिनों का नही सोचेंगे फिर कल यही वो भी कहेंगे । मम्मी एक ही दिन छुट्टी मिली है आज मोवी देखने नही जायँगे तो कब जायँगे आपको मंदिर जाने की पड़ी है । अगर आप कहेंगे कि ऑफिस जा रहे हो तो बीच में मंदिर छोड़ देना तो यही कहेंगे कि मंदिर उल्टी साइड पड़ता है हम लेट हो जाते है। पाठशाला जाना आज जितना बच्चो के लिए जरूरी है उतना ही आपके आने वाले कल के लिए भी जरूरी है🙏🏻🙏🏻🙏🏻
संयम शाह शास्त्री, कवि, लेखक,
2.
जीवन की प्राथमिक सीढ़ी ही पाठशाला होती है, जहाँ पर बीजरोपड़ किया जाता है उसके बाद उसका जो फल अंकुरित होता है वह जिंदगीभर साथ रहता है, पाठशाला की डोर को हम तभी पकड़ सकते है जब बच्चों को शुरुआत से ही यह संस्कार दिए जाये क्योंकि आजकल की जो पीढ़ी है उसमें ऐसा कम देखा जा रहा है जिस घर में पुर्वजों के अनुसार यह सब चल रहा है यो वैसा हो रहा है लेकिन जो बड़े बड़े महानगरों में आजकल जैनी बच्चे है जो नाम के आंगे जैन लिखते है उनको यही नही पता होता कि जैन क्या होते है, णमोकार महामंत्र तो गिर बिलकुल भी नही आता, इसीलिये वर्तमान में बहुत सी टेक्नोलॉजी के माध्यम से हर जगह यह शिविर इत्यादि लग रहे जिनसे बच्चों में यही से अच्छे और सच्चे संस्कार पैदा होंगे इसीलिये छोटे ही या बड़े पाठशाला नही कभी नही छोड़नी चाहिए, पुराने समय में गुरुकुल होते जहाँ गुरूजी और शिष्य होते थे वहाँ गुरूजी छोटे से विद्यार्थियों को अच्छे संस्कार, विकसित कौशल बनाते थे ऐसे ही धार्मिक पाठशाला हमे अंदर एवं बाहर से सर्वसुविधायुक्त बनाती है, अतः पाठशाला जीवन के लिए बहुत ही उपयोगी है और संघर्ष से जीतना भी सिखाती है
*सिद्धांत जैन शास्त्री सिद्धू*
3.
पाठशाला का उद्देश्य संस्कार ही नहीं अपितु हमारा जीवन कैसा हो यह भी होना चाहिए ।
क्योंकि संस्कार बिना सुविधाएं पतन का ही कारण होती हैं।
बच्चो में बचपन से ही अच्छी आदते डालना माता पिता का काम है ही व पाठशाला का भी इसमें बहुत रोल होता हैं।
पाठशाला जाने से बच्चों में गहरे संस्कार आते है। तथा बच्चो में बात करने की विनम्रता होती हैं।
वर्तमान समय में देखा गया है कि
आजकल के बच्चे पाठशाला छोड़ सिनेमा घर जा रहे हैं।
इसका क्या कारण हैं।
इसका यही कारण हैं उनके माता पिता जो बच्चों को पाठशाला न भेजकर लौकिक एक्टिविटिज यानी डांस क्लास, स्पोर्ट्स क्लास में भेजना और उनकी एक जिद पर फोन दिलाना भी यह एक कारण है जिससे बच्चे पाठशाला छोड़ सिनेमा में इंटरेस्ट लेने लगे।
तो सर्वप्रथम माता पिता का भी कर्तव्य होना चाहिए कि वो अपने बच्चो को पाठशाला भेजें।
पाठशाला में बच्चो को जैनधर्म की कहानियां सुनाकर महापुरुषों से अवगत कराना चाहिए।
बाकी आपने बहुत अच्छा बताया है ही
अतः पाठशाला का उद्देश्य बच्चों का लौकिक जीवन सदाचारमय हो, शांति का जीवन हो, तथा अभिभावकों का जीवन भी शांतिमय बीते।
ऐसी मेरी भावना है।
जय जिनेन्द्र🙏🏻
आत्मार्थी अदिति जैन कोटा, राजस्थान
4.
जय जिनेंन्द्र
रहे भावना ऐसी मेरी सरल सत्य व्यवहार करुं,
बने जहाँ तक इस जीवन में औरों का उपकार करूं।
अपने बच्चों के बारे में हम कितना कुछ नही सोचते उनके भविष्य को लेकर माता-पिता कितने चिंतित भी रहते है,उनकी दैनिक ज़रूरतों को लेकर भी कभी किसी चीज़ की कमी न होने पाए ऐसी बेटा/बेटी अच्छे स्कूल में पढ़े उसका भविष्य उज्जवल हो उसके सारे सपने पूरे हों यही कोशिश प्रत्येक माता-पिता की होती है और उनका सपना पूरा करना ही माता-पिता का सपना बन जाता है।
चलो मान लिया हमने उसे बहुत मेहनत करके अच्छे स्कूल में पढ़ाकर एक बहुत काबिल इंसान बना दिया,जैसा जैसा हमनें सोचा था ठीक वैसा ही हुआ परन्तु विचारणीय बात तो यह है कि क्या यहीं हमारा कर्तव्य पूरा हो गया?
मैने तो आज भी ऐसे कई पढे लिखे महापुरुष देखे है,जो अपने कार्य में भी बहुत अव्वल है लेकिन अपने परिवार के साथ उतने ही विछिन्न है जी हां जिन माता पिता ने कड़ी मेहनत की,इस योग्य बनाया आज वही बेघर कहीं वृद्धाश्रम में बेसहारा देखा है तो कहाँ गयी वह स्कूली शिक्षा?
मात्र स्कूली शिक्षा ही उपयोगी नही है अपितु उसके साथ धार्मिक संस्कार भी उतने ही उपयोगी है जितने की दैनिक जीवन में रोटी,कपड़ा और मकान...
ये बात हम सभी को भली भांति पता है संस्कारों के बीज बच्चों को पाठशाला में विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों,प्रतियोगताओं के माध्यम से अंकुरित किये जाते है।
वास्तव में धार्मिक शिक्षा के बिना जीवन असार है
हम स्वयमं भी जुड़े और बच्चों में भी संस्कारों की नींव डालें।
उक्ति भी है-
*"संस्कार विहीन मनुष्य भी पशु के समान है"* जीवन हमारा है और निर्णय भी।
शास्वत जैन शास्त्री, बड़ा मलहरा