Saturday, January 27, 2024

ई-कल्पना पत्रिका में कैसे छपवाएं अपनी कहानियां : मानदेय के साथ प्रोत्साहन भी, पूरी प्रक्रिया जानिए....लिखो और कमाओ

 


ई-कल्पना पत्रिका युवा लेखकों के लिए बेहतरीन मंच है। यह पत्रिका ना सिर्फ लेखक की रचना प्रकाशित करती है बल्कि उचित मानदेय भी देती है। जो कलमकार लिखने में रुचि रखते हैं और कहानियों को पन्ने पर उतारना जानते हैं उनके लिए यह पत्रिका प्रोत्साहन प्रदान करती है और शानदार मौका देती है। अगर आप भी कहानी लिखते हैं तो ई-कल्पना को अपनी कहानी लिख भेजिए। प्रक्रिया मैं आपको बताता हूं।

सबसे पहले अपनी पूरी कहानी को वर्ड फाइल में समेटकर ई-कल्पना के ऑफिशियल ईमेल आईडी पर 'ई-कल्पना में प्रकाशनार्थ कहानी' विषय के साथ वर्ड फाइल अपलोड कर ekalpnasubmit@gmail.com पर मेल कर दीजिए। बहरहाल कुछ ही दिनों (लगभग एक हफ्ता) में पत्रिका की तरफ से आपको मेल आएगा। मेल मे लिखा होगा कि आपकी कहानी पढ़ी जा रही है। आपकी रचना की स्वीकृति-अस्वीकृति के निर्णय पर पहुंचने पर जल्द आपसे  संपर्क किया जायेगा। और अगर आपके द्वारा भेजी गई कहानी कहीं और प्रकाशित हो रही है तो तुरंत अवगत कराएं।

कुछ दिनों बाद ई-कल्पना की तरफ से कहानी की स्वीकृति-अस्वीकृति को लेकर मेल आएगा। अगर आपकी कहानी अस्वीकृत हुई हो तो फिर आगे कोई बात ही नहीं लेकिन अगर आपकी कहानी स्वीकृत हुई होगी तो पत्रिका का अगला अंक जब भी प्रकाशित होगा आपको बताया जाएगा। उसके बाद आपसे फोटो और आपका परिचय मांगा जाएगा। (आप जब कहानी भेजें तब भी अपना परिचय और फ़ोटो भेज सकते हैं)

ध्यान देने योग्य बात ये है कि इस मेल में एक नोट भी लिखा रहेगा जिसे आप ध्यान से पढ़िए। नोट होगा - अपनी कहानी के लिये आपको  प्रकाशन के समय  ₹2000 का मानदेय प्राप्त होगा. हम आपसे उम्मीद करते हैं कि इस शुभ समाचार को आप मित्रों में व सोशल मीडिया में शेयर करेंगे.  यदि आपको लगता है कि आप ऐसा नहीं कर सकते तो हमें तुरंत बताएं. साथ में, यदि इस दौरान आपकी यह कहानी कहीं और प्रकाशित हो गई हो, या फिर पूर्व प्रकाशित है, तो भी हमें ज़रूर सूचित करें, और अपनी कोई और अप्रकाशित कहानी भेजें. उसे हम प्रकाशन विचारार्थ सखुशी पढ़ेंगे.
यदि आप सेशल मीडिया में हैं तो कृपया ई-कल्पना को फ्रैंड-रिक्वैस्ट भेजें या फिर अपना पता दें और हम आपसे फ्रैंड रिक्वैस्ट करेंगे.

फिर आपके पास अगल मेल आएगा जिसमें पत्रिका के नियम और शर्ते बताई जाएंगी जिन्हें आप बहुत ध्यान से पढ़िए और समझिए।

1. यदि आपकी कहानी प्रकाशन तिथि से पहले किसी अन्य पत्रिका में प्रकाशित होती है तो कृपया हमें ज़रूर और तुरंत इत्तिला करें. 
2. यदि आप सोशल मीडिया में शामिल हैं, तो अपनी प्रकाशित कहानी मित्रों में ज़रूर शेयर करें. हमने देखा है कई लेखक काफी सक्रिय होने के बावजूद हमारी पत्रिका में प्रकाशित अपनी कहानी अपने मित्रों में साझा नहीं करते हैं. इससे उनके उत्साह का अभाव झलकता है, साथ में हम ये भी समझते हैं कि ई-कल्पना द्वारा सम्मानित लेखक ई-कल्पना को सपोर्ट करने में कोई दिलचस्पी नहीं रखता. 
उपर्युक्त दशाओं के उल्लंघन का (यानि, पूर्वप्रकाशित होना, या सोशल मीडिया में सक्रिय होने के बावजूद कहानी को शेयर न करना), इन दोनों का असर बिलकुल मानदेय के वितरण में भी होगा. 
3. यदि आपने अब तक अपनी बायो व फोटो नहीं भेजी है, तो कृपया भेजेंअपनी कहानी हमें भेजने के लिये धन्यवाद।

और फिर प्रक्रिया के अनुसार ई -कल्पना की वेबसाइट ऑफिसियल वेबसाइट https://www.ekalpana.net/ पर सबसे पहले आपकी कहानी प्रकाशित होगी। उसके बाद जब आपकी कहानी पत्रिका में प्रकाशित होगी तब आपके पास इस तरह का में आएगा।

प्रिय लेखक, नमस्कार ! आपकी कहानी पाँच कहानियाँ के __वें संकलन में प्रकाशित हो चुकी है. कहानी के लिये आपको ₹ 2000 की राशि मानदेय के तौर पर दी जाएगी, जो आपके अकाऊंट में ई-कल्पना के इंडस-इंड के गुड़गांव ब्रांच से वायर ट्रांस्फर की जाएगी. 
कृपया अपने बैंक डीटेल (निम्नलिखित) भेजें.

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हमारी दिली कोशिश है कि ज़्यादा लोग अच्छी कहानियाँ पढ़ने की और लिखने की आदत डालें, प्रकाशन के लिये भी भेजें. इसलिये यदि आप अपनी इस प्रकाशित कहानी को मित्रों में व सोशल मीडिया में शेयर करें तो हम आपके आभारी होंगे.  आपकी कहानी ई-कल्पना ब्लॉग में सदा प्रकाशित रहेगी, इसे आप या आपके मित्र निःशुल्क पढ़ सकते हैं. 

संकलन की प्रत्येक प्रति रु 95 में पत्रिका के साइट (इस लिंक) पर उपलब्ध है.  40वाँ संकलन खरीदने का लिंक यहाँ है. आगे - कहानियाँ लिखते रहें,  अपनी नई कहानियाँ भेजते रहें. हमें आपकी कहानियों का इंतज़ार रहेगा. सधन्यवाद

मुक्ता सिंह-ज़ौक्की
सम्पादक, ई-कल्पना

यही ई-कल्पना पत्रिका में अपनी कहानियां भेजने की पूरी प्रक्रिया है। अगर आप कहानियां लिखते हैं तो देर मत कीजिये पत्रिका ने अगले अंक के लिए कहानियां पढ़ना शुरू कर दिया है। विशेष ध्यान दें : ई-कल्पना अनगिनत कहानियों में बेहतरीन कहानियां छापती है इसलिए लेखन पर जोर दें और इसके लिए पत्रिका ने अपनी गाइडलाइन वेबसाइट दी है जो मैं यहां शेयर कर रहा हूँ।

अपनी कहानियाँ भेजिये ...
आपकी कहानी - ● पूर्व प्रकाशित न हो
● एक अच्छी कहानी का स्वरूप बनाए रखें, यानी कि भाषा, विडम्बना, कथानक, इत्यादि न भूलें ... भाषा अच्छी ही न हो, वर्तनी व व्याकरण का भी ध्यान दें
● यूनिकोड फांट में हो. (नोट – कृति देव यूनीकोड फांट नहीं है. कई लेखक हमें कृति देव में शायद यह सोचकर भेजते हैं कि इसे बस कनवर्ट ही तो करना है, कर लेंगे ये लोग. जी हाँ, यही करना पड़ता है हम लोगों को, क्योंकि हम आपकी कहानियाँ पढ़ने को अधीर हो रहे होते हैं. मगर यह बात भी सही है कि जब पढ़ने को बहुत सारी कहानियाँ होती हैं, तो वो कहानियाँ जो कृति देव में टंकित की जाती हैं, कई बार रह जाती हैं)
यदि उपर्युक्त सभी बातों में आपकी कहानी खरी उतरती है, तो हमारी सम्पादकीय टीम उसे बहुत प्रेम से पढ़ेगी।


प्रकाशनाभिलाशी लेखकों के लिये सूचना

1. यदि आपको कहानी प्राप्ति पत्र मिल चुका है, लेकिन स्वीकृति/अस्वीकृति निर्णय पत्र नहीं मिला है, तो कृपया इंतज़ार करें. कहानियाँ लगातार पढ़ी जा रही हैं.
2. मानदेय के विषय में - लेखक के काम का मूल्य होता है, इसलिये हर स्वीकृत कहानी को हम मानदेय देते हैं. हर स्वीकृति पत्र में हम लेखक से प्रकाशन की सूचना अपने मित्रों में सोशल मीडिया के ज़रिये प्रसारित करने की विनती भी करते हैं. इससे, पहले तो लेखक का उत्साह झलकता है, साथ में पत्रिका का भी प्रसार होता है. पत्रिकाओं को पाठकों की ज़रूरत है, यह एक लॉजिकल सच है. अकसर हमने देखा है कि लेखक सोशल मीडिया में सक्रिय होने के बावजूद ई-कल्पना में प्रकाशित अपनी कहानी साझा नहीं करते हैं. इसे हम केवल एक तरह से देखते हैं - कि लेखक ई-कल्पना को बॉयकौट कर रहे हैं. सामान्यतः हम उम्मीद करते हैं कि प्रकाशन के एक हफ्ते के दौरान लेखक कहानी को साझा कर अपना गर्व भी साझा करेंगे. इसलिये हमारे सम्पादक मंडल ने तय किया है कि यदि आप सोशल मीडिया में सक्रिय हैं और ई-कल्पना में प्रकाशित अपनी कहानी को साझा नहीं कर रहे हैं,  तो यह आपकी मर्ज़ी है, लेकिन कहानी के मानदेय के वितरण में इसका असर पड़ सकता है.

पत्रिका को लेकर मेरा अनुभव

यह पूरी प्रक्रिया ही मेरा अनुभव है। इसी प्रक्रिया के साथ ही मेरी कहानी भी प्रकाशित हुई।  ई-कल्पना पत्रिका का मेल गणतंत्र दिवस पर प्राप्त हुआ (स्क्रीन शॉट अटैच कर रहा हूँ)। यह पहली बार है जब ई-कल्पना से मुझे मानदेय मिल रहा है। ऐसी पत्रिकाओं का खूब प्रचार और प्रसार होना चाहिए। नए लेखकों के लिए यह अच्छा प्लेटफॉर्म है। ई-कल्पना पत्रिका में पिछले दिनों मेरी कहानी 'लॉकडाउन कोटा' प्रकाशित हुई थी। 

अगर आप कहानियां लिखते हैं तो अपनी रचनाओं को ई-कल्पना को भेज सकते हैं। आपकी रचनाएं यहां प्रकाशित होंगी तो आपको पारिश्रमिक भी मिलेगा और रचना पांच कहानियों के संकलनन में ई-मैग्जीन के तौर पर भी प्रकाशित होगी। जिसमें आप अन्य लेखकों की कहानियां भी पढ़ सकते हैं।



ई-कल्पना की कोविड कहानी सीरीज़ में प्रकाशित सोमिल जैन सोमू की लिखी कहानी "लॉकडाउन कोटा"*

https://www.ekalpana.net/post/ekalpanacovidstorysomiljainsomuhttps://www.ekalpana.net/post/ekalpanacovidstorysomiljainsomu

Blog कैसे बनायें? Step by Step in Hindi



Monday, January 15, 2024

गुरूर नहीं बस मिजाज में खुद्दारी बहुत है.....

मुझसे अगर कोई पूछे कि तुम्हारी नज़र में सबसे ज्यादा अमीर कौन है तो मैं बिना रुके, बिना हिचकिचाएं जवाब दे सकता हूँ। मेरा जवाब होगा 'जिसका आत्म सम्मान जिंदा है वो सबसे ज्यादा अमीर है'।

मैंने ऐसे बहुत सारे उम्रदराज लोग देखें हैं जिनके अंदर खुद्दारी इतनी की मर जायेंगे लेकिन किसी के आगे मांगने नहीं जाएंगे। वो अपनी मेहनत और संघर्ष से कमाई चीजों से खुश हैं क्योंकि उन्हें पता है कि उन चीजों में वो गर्व महसूस करते हैं। एक अपनापन लगता है कि ये चीजें मेरी हैं इनपर कोई और अधिपत्य नहीं जमा सकता ना कह सकता है कि शर्म करो ये तुम्हारी चीजें थोड़ी हैं।

नोकरी करने वाले आदमी को ऐसा समझा जाता है कि उसका आत्म सम्मान कहाँ हैं। दूसरे के यहां, दूसरे के लिए काम कर रहा है इससे सेल्फ रेस्पेक्ट तो मर गई न? आत्म सम्मान तो खुद का धंधा करने में हैं। बिल्कुल बात सत्य है लेकिन क्या नोकरी करने वाला इंसान किसी से भीख मांग रहा है? सुबह से शाम किसी कंपनी को अपना वक्त, सारे एफर्ट्स, जो सीखा उसने सब झोंक देता है तो उसकी मेहनत की सैलरी मिलनें में आत्म सम्मान कहाँ खत्म हो गया? अगर यही एम्प्लॉय एक दिन काम पर ना आये तो बड़ी से बड़ी कंपनियों के L लग जाएंगे। वो जो काम करते हैं उनको उस काम का दाम मिलता है। स्वाभिमान खत्म करना तो तब है जब आप गधों की तरह काम करते रहो और बॉस फिर भी आपको गाली दे और आप गाली सुनो, सुनते रहो, अपमान सहते रहो दिक्कत वहां है। मुझे ऐसे बॉस मिले नहीं है जिन्होंने मेरे साथ ऐसा किया हो लेकिन अगर ऐसा है तो बोलो, ऐसे बोलो की सुनने वाले का जीवन धन्य हो जाये। सुनते वो हैं जिन्हें खुद पर भरोसा नहीं कि मैं जो काम कर रहा हूँ वो मुझे आता भी है या नहीं। अगर काम आता है तो फिर ऐसा सुनाओ कि सुनने वाला दोबारा आपसे बोले ही ना उसे समझ आ जाये कि काम अपनी जगह है लेकिन किसी के आत्म सम्मान से ऊपर जाओगे तो वहीं पेल दिए जाओगे और चूकि ऐसा मेरा व्यक्तिगत अनुभव है।

मैं आत्म सम्मान के मामले में अपने दादा को बहुत महान मानता हूं। गरीबी देखी, गरीबी में रहे, बच्चों को पाला, उनको काम करने योग्य बनाया, हमें पाला, लेकिन आजतक मैंने उनको किसी का एहसान लेते नहीं देखा।शायद वही गुण मेरे पापा में थे और वही मुझमें। अगर किसी के पैसे लिए तो वापिस किये भले ही वो 5 रुपये हों या 10 रुपये। आज भी अगर उन्होंने कुछ बाजार से मुझसे सामान मंगवाया तो जैसे ही मैं सामान लाया वो मुझे उस सामान के पैसे तुरंत अपने जेब से निकाल कर देते हैं।
कभी-कभी सोचता हूँ कि जो सिंग्नल, रेलवे प्लेटफॉर्म तमाम जगहों पर भीख मांगते हैं उन्होंने अपने आत्म सम्मान को कितने पहले मार दिया होगा।

फिहलाल सत्य यही है कि पैसा वो वबासीर है, जो आदमी के मरने तक ठीक नहीं होगा। जरूरी है आत्म सम्मान बरकरार रहे। पैसा आएगा-जाएगा लेकिन ये गया जिस दिन उस दिन सब खत्म। और कोई आपके आत्म सम्मान की इज्जत करता है तो उससे अच्छा इंसान आपकी जिंदगी में नहीं है। और जिन्हें सबसे पहले अपना आत्म सम्मान जरूरी लगता है मैं उनकी इज्जत करता हूँ।


Wednesday, January 10, 2024

सब्र कर पथ के मुसाफिर...सब्र कर...


जब बचपन में सुनते थे कि सब्र करो छोटू, सब्र का फल मीठा होता है। उस समय शायद समझ नहीं आया कि सब्र क्या होता है। धीरे-धीरे जीवन की गाड़ी आगे बढ़ी तो समझ आया चीजें ऐसे ही चलती हैं औऱ धैर्य जीवन का सच्चा साथी है। लगभग एक-डेढ़ महीने से धैर्य, सब्र, इंतज़ार का सच्चा मतलब समझ आ रहा है। अनेकों विवादों में मन फसा, सम्मान-अपमान ना जाने कितनी व्यथाओं में उलझा मन सब्र की गहराइयों को नाप रहा है। जीवन चक्र ही ऐसा है जो परिवर्तन मांगता है। परिवर्तन अटल सत्य है जो सबके जीवन में होना है। कुछ दिन पहले जिंदगी अलग थी, अब अलग है उसके मिजाज भी अलग हैं। किसी को समझाने का प्रयास व्यर्थ है क्योंकि बड़े पंडित जी कहते हैं कि- 'पापोदय में नहीं सहाय का निमित्त बने कोई' जब आपके पाप कर्म का उदय चल रहा हो तो कोई सहायता भी नहीं करता और जब सामने वाले को पता हो, दुनिया को पता हो कि आपका कठिन समय चल रहा है तब तो और भी दुखद है ये राणा जी ने कहा था।


कभी-कभी आप जिसे सबसे ज्यादा चाहते हैं, सोचते हैं कि नहीं ये नहीं बदलेगा। वक्त के साथ वो भी बदल जाते हैं। और उस बदलने से निराश-हताश ना होकर बस नियति का फेरबदल देखना चाहिए। वक्त के साथ महत्त्व भी खत्म होता जाता है। जिसका कभी आप सबकुछ थे उसका सबकुछ कभी कोई और भी हो सकता है। ऐसा नहीं है कि आपको बुरा नहीं लगेगा, बहुत बुरा लगेगा, ऐसा लगेगा कि जैसे वो आपको छोड़ कर जा रहा हो लेकिन सब्र......इंतज़ार ये शब्द सिर्फ किताब में ना रह जाएं बल्कि असल जीवन में हम उतारे यही है जिंदगी का फलसफा, तजुर्बा......


मेरा ऐसा मानना है कि दुनिया खूबियों से नहीं कमियों से चल रही है। कोई मेरी खूबियां भले ना जाने लेकिन कमियां बिना जाने बता सकते हैं। चाहे चेहरे से, चाहे बात करने से या फिर कई और तरह से सब संभव है। अब सवाल है कि और कितना? कितना सब्र लगेगा। ये सवाल जब मैं सोचता हूँ तो एक मेरे भैया जो CA कर रहे हैं और ना जाने कितने अटेम्प्ट दे चुके हैं उनकी सकारात्मक बातें याद आती हैं। फिर दशरथ मांझी का वो डायलॉग जब तक तोड़ेंगे नहीं, तब तक छोड़ेंगे नहीं। फिलहाल सत्य यही है कि धैर्य चाहिए भगवान राम जैसा जो सिर्फ एक आदेश के बाद वर्षों वन में रहकर अपने धैर्य का परीक्षण करते रहे।


बड़ी कश्मकश है जिंदगी में.....लेकिन सच यही है कि सब्र करना चाहिए। कोई समझे आपको या नहीं लेकिन सब्र करना चाहिए और ये अपेक्षा भी नहीं रखना चाहिए कि कभी आप समझे जाओगे। सबके जीवन में सबेरे नहीं हैं तो क्या हुआ बस अंधेरे में ही दीपक जला लेना चाहिए क्योंकि हर रात की सुबह है इसलिये आज नहीं तो कल....कल नहीं तो परसों......अनंत तक....कुछ दिन पहले पढा भी था कि बुरे वक्त जरा अदब से पेश आ क्योंकि वक्त नहीं लगता, वक्त बदलने में....

Thursday, January 4, 2024

खामोश रातें, उदास आंखे क्या कहती हैं.....


उतार-चढ़ाव जिंदगी का हिस्सा हैं उन्हें स्वीकारना ही समझदारी है। इन शब्दों के मायने शब्दशः अब समझ में आए हैं। फिलहाल ख्वाबों का खंजर सीने को चीर रहा है। कुछ चीजें बदल रही हैं बदलेंगी लेकिन बहुत कुछ बदलना है पर सब्र का बांध टूट रहा है। कितनी किसकी इज्जत करनी पड़े, अपमान कब तक और कितना सहा जाए। विचारों का अंतर्द्वंद्व अजीब सी मिसमिसाहट भरे आंखों ने नीचे और भी गड्ढे कर रहा है।

कुछ चीजें कभी बदलती नहीं हैं जैसे कि लोगों की आपके प्रति सोच....उन्हें लगता है कि तुम वही  पहले जैसे हों, आप विरोध करो तो बेइज्जत होते हैं और उस समय आपको पता चलता है कि कोई आपके साथ नहीं हैं बस अब तमाशबीन बनकर आपका तमाशा बनते देख रहे हैं। बस वो समय होता है जब आपको सब्र सीखना होता है क्योंकि कभी- कभी जवाब मुंह से नहीं दिए जाते है, आपकी मेहनत जवाब देती है वो भी बहुत जोर से......

ये चीजें इसलिए समझ आईं क्योंकि उस वक्त मैंने सब्र किया, गुस्से को कंट्रोल किया और पूरा जोर आंसुओं को रोकने में लगाया  तब जाकर समझ आया कि दार्शनिक बातें कहने-सुनने में कितनी अच्छी लगती हैं लेकिन अपनाने में, अपने कैरेक्टर में लाने में पूरा जीवन लग जाता है। शायद इसलिए जीवन जंग है किसी और से नहीं बल्कि खुद से...बहुत दिनों पहले दो लाइन पढ़ी थीं जो सब दुख दर्द हर लेती हैं...लिखा है कि 'जिन मुश्किलों में मुस्कुराना हो मना, उन मुश्किलों में मुस्कुराना धर्म हैं.....' 

Wednesday, July 26, 2023

वो जो इस सफ़र में जरुरी हैं

 

                                      परिंदे डरने लगें, अगर परवाज़  से।

फिर उन्हें कौन रूबरू कराएगा आज़ से।

 

“सोमू”

                        वो जो इस सफ़र में जरुरी हैं


ये महज एक किताब नहीं है। ये एक सपना था जो अब हकीकत बनकर सामने आया है। कई रातों से, कई रातों तक के सफर में, कई अनकही बातों से निकली ये कहानी, शायद मेरी उड़ान को उड़ान दे। शब्दों को किताब की शक्ल मिलना मतलब मेरे सपने का सच होना है। बेहद आभार हमारे बड़े सर गुप्ता जी का जिन्होंने हिंदी का पहला चांटा लगाया था और कहानी कहने का और लिखने का अंदाज़ उन्हीं से सीखा था।

सर्वप्रथम इस किताब को छपने से पहले ही सराहना देने वाले मेरे गुरु, बड़े भैया पीयूष शास्त्री को धन्यवाद जिन्होंने हमें नोवेल्स पढ़ने की रुचि लगाई और मुझे वाकिफ कराया कि मेरी रुचि साहित्य में है।

ब्रम्हानंद जी, जिनका साथ हमेशा मेरे साथ रहा।

मुझे हॉस्टल में रहते हुए दस साल हो गए हैं। इन दस सालों के सफर में हमेशा मेरे साथ रहे जितेंद्र जैन, नयन जैन, और हमारे चायमित्र शाश्वत जैन।

अमन जैन, सपन जैन, विनीत जैन, देवांश सेठ, पीयूष मंडावरा, पीयूष टड़ा, प्रतीक विदिशा, अनुभव जैन, और पूरी आत्मन क्लास को दिल से शुक्रिया!

अभिषेक जैन, जिसकी बात की शुरुआत इसी किताब के जिक्र से होती थी।

संयम शाह, नितिन जैन, अंकुर जैन, एकांश जैन जिनकी मदद से नॉवेल लिखने का मैं अदना सा साहस कर पाया।

मैं शुक्रगुजार हूँ उन तमाम लोगों का जिन्होंने मेरे इस सफर में मेरा साथ दिया। जिनके बिना मेरी किताब डायरी में ही सिमट कर रह जाती।

ये किताब कोई फिलॉसफी नहीं है ना कोई ज्ञान की बात। बस कुछ देर तक इंटरनेट से दूर रहने का अदना सा बहाना है। इसे पढ़ते वक्त आप रेडियोधर्मी किरणों से शत प्रतिशत दूर रहेंगे ये वादा है आस-पास के किस्सों से उठायी ये कहानी है जो शायद जानी-पहचानी है। आपको जरूर पसंद आएगी।

 

इत्यलम्

"सोमू"



तेरे शहर में

 

5 फ़रवरी, 2020

 

मैं दुबई के लिए उड़ान भर चुका था। मुझे टेकऑफ करने के लिए मेरा पूरा परिवार एयरपोर्ट पर मौजूद था। अपनी आँखों से देखे हुए मेरे कुछ सपनो में से एक सपना पूरा हो रहा था। सपना सिंपल था। “विदेश सिर्फ घूमना है वहाँ रहना नहीं है”। मैं बहुत खुश था मगर थोड़ा नरवसया रहा था क्योंकि पहली बार ऐरोप्लेन में बैठा था। कभी जमीन को इतनी ऊंचाई से नहीं देखा था। मजा इसलिए आ रहा था क्योंकि विंडो वाली शीट मिली थी। हेडफ़ोन मेरे पास में पहले से थे। पहले मैं दुबई नहीं जा रहा था मगर लाइब्रेरी के काम से जाना पड़ रहा था और खुशकिस्मती ये रही कि मेरे मुंह बोले भैया-भाभी दुबई में सालों से अपना डेरा जमाये हैं। वे हमेशा मुझसे कहते थे “यहाँ सुकून है, शांति है, धर्मं है, धन है ब्ला..ब्ला..ब्ला..”

मैंने भी वही किया जो टिपिकल इंडियंस करते हैं और आजकल का ट्रेंड भी है। “कुछ भी कर फेसबुक पर डाल” की नीति अपनाते हुए पॉकेट से अपना बेचलर जीवनसाथी निकाला और सेल्फी मोड में विभिन्न प्रकार के एंगल से फोटो क्लिक की। फिर उसके बाद भी वही किया जो सब करते हैं। फेसबुक अकाउंट पर अवनी को टेग करते हुए कैप्शन में “प्रथम हवाई जहाज यात्रा” टाइप करके पोस्ट कर दी।

“Please Switch Off Your Phone Sir” एयर होस्टेस ने पर्सनली मेरे पास आकर कहा। मैंने भी एक हल्की सी स्माइल पास करते हुए फ़ोन स्विच ऑफ किया। मैंने सुबह-सुबह ही जयपुर से दुबई के लिए उड़ान भरी थी। वीजा मिलना मुश्किल नहीं था। मेरे बगल में विराजमान फिरंगी टाइप आंटी से मैंने बात करनी चाही।

“Hello” मैंने शुरुआत की।

“Hello” उन्होंने मरी सी आवाज में कहा।

“I am Rohit Asati…..I am a writer” मैंने इम्प्रेसन ज़माने के लिए इंग्लिश झाड़ी।

“Good”

“Where are you going?”

“Dubai”

“Why”

उन्होंने मुझे घूरकर देखा। “ज्यादा चेंपो मत” उनका क्लियर जबाब था। मैंने नज़रे झुका लीं। मैं इन तीन घंटो को बर्बाद नहीं करना चाहता था, इसलिए अपनी डायरी निकाली और लिखना शुरू किया।

तीन घंटे तक मेरे हाथ बस लिखे जा रहे थे। जो मेरे मन में आ रहा था बस लिखे जा रहा था। तभी अनाउंस हुआ। फ्लाइट दो मिनिट में दुबई लैंड करने वाली थी।

“कौनसी बुक लिखी है” फ्लाइट लैंड होने के बाद आंटी ने जाते-जाते मुझसे पूछा।

“लिख रहा हूँ अभी पब्लिश नहीं हु” मैंने कहा।

वो मुस्कुराईं। उन्होंने अपने हैंडबेग से एक बुक निकालकर मेरे हाँथ में थमा दी। मैं कुछ बोलता उससे पहले वो जा चुकीं थी। “कमला दास झुनझुन वाला” यही नाम था उस किताब की राइटर का। बुक के पीछे बनी उनकी तस्वीर देखकर मेरे मुंह से निकला “अबे ये तो इंडियन हैं”

मैं चाहता तो भैया-भाभी के घर भी रुक सकता था मगर जब फ्री फ़ोकट में दुबई की नामचीन होटल का न्योता मिला है तो काहे छोड़ा जाए। “मुफ्त का चन्दन घिस मेरे नंदन” वाली कहावत को याद करते हुए अपना लगेज लिए एयरपोर्ट से बाहर आ गया।

“Mr. Rohit Asati” मेरे नाम का प्लग कार्ड लिए एक महानुभाव को मैंने अपनी तरफ आते देखा। मुझे अपने करीब आते देख उन महानुभाव ने अपनी जुबान खोली। “दुबई मा तमारो स्वागत छे”

“धन्यवाद” मैंने मुस्कुराकर कहा। महानुभाव टेक्सी ड्राईवर थे। उन्होंने मेरे लगेज को टेक्सी की डिग्गी में डाला और टेक्सी तेज़ रफ़्तार से अटलांटिस होटल को रवाना हुयी।

 

#######

 

व्यस्त दिन व्यतीत हुआ। मैं भैया-भाभी से मिल चुका था। बहुत जरुरी मीटिंग्स भी अटेंड हो गईं थी। होटल के रूम में पहुँचते ही मेरे डेस्क पर कमलादास की बुक पड़ी थी। मैंने अपनी डायरी को हर जगह खोजा मगर डायरी कहीं नज़र नहीं आई।

मैंने मोबाइल का डेटा ऑन किया। फेसबुक के इनबॉक्स में अवनी के मेसेज पड़े थे। मुझे सिर्फ एक मेसेज सुकून दे रहा था। “तुम्हारी डायरी मेरे पास है”

“तुम्हारे पास कैसे आई मेरी डायरी” मैंने मेसेज टाइप किया।

“मिलकर बताउंगी”

“कब”

“कल…..बोम्बे चोपाटी पर”

“ये कहाँ है”

“लोकेशन भेज रही हूँ मैं” अवनी ने मुझे लोकेशन सेंड की।

मुझे नींद आ रही थी। मैं ऑफलाइन हो गया। अवनी के पास मेरी डायरी थी। पब्लिशर की बेटी है डायरी पढ़े बिना नहीं रहेगी। इसी उधेड़बुन में मेरी नींद लग गई।

 

 


 


Tuesday, May 23, 2023

मेरी उड़ान के जीवित पंख थे 'संजीव'


बात 2019 के अगस्त शिविर की है। आज से 4 साल पहले मैं नया नवेला लेखक एक महान व्यक्तित्व को अपना नमूना दिखाने अपनी होस्टल जयपुर शिविर में पहुंचा था। तमन्ना थी कि अपना लिखा उस व्यक्तित्व को दिखाऊँ जिससे ही सब कुछ सीखा था। मुझे पता था ये सागर को बूंद, सूरज को दीपक दिखाने जैसा है लेकिन बालक बुद्धि मैं क्या करता ! शिविर में यहां-वहां उनसे टकराया और बोला भी कि भाईसाब मैंने बुक लिखी है आपको देना है कब आ जाऊं आपके पास बुक देने तो उनके मुंह से सहज ही निकलता 'कभी भी ले आना'। विद्यार्थियों के लिए हमेशा उपलब्ध रहने के कारण ही शायद आज सारे विद्यार्थी उनके जाने से टूट चुके हैं। मैंने उनको बच्चों से कभी ये कहते नहीं सुना कि 'मेरे पास टाइम नहीं है' ऐसा व्यक्तित्व जो हमेशा तत्वज्ञान के लिए समर्पित रहा उसका बखान इन चंद शब्दों से नहीं हो सकता। और आखिरकार शिविर की एक शाम मैंने उनको देखा और पहुंच गया उनके पास अपनी किताब लेकर बिना संकोच किये। ये वो पल था जब उन्होंने किताब हाथ में लेकर बार-बार उसे देखा फिर मुझे देखा और कंधे से अपनी तरफ खींचकर शाबाशी दी, वहीं खड़ी संस्कृति भाभी ने भी किताब की सराहना करके मेरा उत्साह दुगुना कर दिया। भले मेरी किताब हिंदी उपन्यास के रूप में थी जो धार्मिक नहीं थी लेकिन विद्यार्थियों की प्रतिभा के कद्रदान भाईसाब हमेशा थे ये उस दिन मालूम हुआ था। आखिर में भाईसाब से ये सुनकर कि 'मैं ये किताब जरूर पढूंगा' मैं आत्मविश्वास के आखिरी लेविल पर पहुंच गया और किताब से बड़ी उपलब्धि मेरे लिए उनकी शाबाशी हो गई। 

बस उस दिन के बाद वही थी उनसे आखिरी मुलाकात। जब भाईसाब यहां ज्ञानोदय आये तो बड़ी खुशी हुई थी कि उनसे मिलूंगा लेकिन जिस दिन मैं ज्ञानोदय पहुंचा, वो इंदौर निकल चुके थे तब ऐसा लगा जैसे मेरी सारी खुशी सुमेरु पर्वत से नीचे गिरकर धराशाई हो गई हो।खुशकिस्मत हूँ कि मैं उनका शिष्य था, और ताउम्र रहूंगा क्योंकि उनकी बातें, उनकी यादें, और उनके साथ की एक सुंदर तस्वीर मेरे टूटे आत्म विश्वास को जगाती रहेंगी और कहती रहेंगी " हमारे बाद इस महफ़िल में अफसाने बयां होंगे, बहारें हमको ढूढेंगी ना जाने हम कहाँ होंगे.....


सोमिल जैन 'सोमू'

Saturday, May 20, 2023

हमारी पाठशाला कैसी हो?

 


          पाठशाला का उद्देश्य :
जब से पाठशाला की शुरुआत हुई है तब से पाठशाला का एकमेव उद्देश्य रहा है "बच्चों में अच्छे और सच्चे संस्कार विकसित करना"
आखिर हम क्यों पाठशाला में संस्कार देने का उद्देश्य रखते?
क्या संस्कार विद्यालयों, महा विद्यालयों और विश्व विद्यालयों में नहीं दिए जाते जो हम अलग से पाठशाला लगाने का भरपूर प्रयास करते हैं?
इसका सरल और सीधा जबाब है कि शिक्षा हमेशा रोजगारउन्मुखी होती है उसका काम जीवन-यापन के लिए आजीविका उपलब्ध कराना होता है मगर संस्कार हमारे व्यवहार को प्रदर्शित करता है। मेरा व्यक्तिगत मानना यह है कि शिक्षा का उद्देश्य नौकरी या व्यापार ही होता है।हमें अच्छा इंसान  हमारे संस्कार बनाते हैं।
यही फर्क है शिक्षा और संस्कार में। इसलिए संस्कार के लिए हम पाठशाला जाते हैं और पाठशाला का उद्देश्य बच्चों में संस्कार विकसित करना होता है।
अब प्रश्न उठेगा कि कैसे  "संस्कार" बच्चों को दें?
सुबह उठकर हमारी दिनचर्या कैसी होनी चाहिए ये स्कूल डिसाइड नहीं करते बल्कि पाठशाला डिसाइड करती है। सुबह से उठकर णमोकार मंत्र को पढ़ना, शौचादि क्रियाओं से निपटकर नहा-धोकर शुद्ध वस्त्र पहनकर मंदिर जाना, बुजुर्ग से लेकर बच्चों तक को "जय जिनेन्द्र" कहकर जिनेन्द्र भगवान का स्मरण स्वयं करना और दूसरों का कराना ये संस्कार कहलाते हैं।
कुछ संस्कार हमें अपने माँ बाप के खून (DNA) से मिलते हैं। जैसा उनका स्वभाव रहा है जैसे उनके संस्कार रहे हैं वो हम में भी आ जाते हैं मगर उनको विकसित करने का काम हमारी पाठशालाएं करती हैं।
पाठशाला का उद्देश्य जैनधर्म के संस्कारों को बच्चों में डालने का है। उनमें विवेकपूर्वक खुद निर्णय लेने की क्षमता विकसित करना ही पाठशाला का कर्तव्य है। हम बच्चे से बार कहते रहेंगे कि "मंदिर जाओ, मंदिर जाओ" बच्चा 1 हफ्ते तक जाएगा मगर फिर वो मंदिर नहीं जाएगा लेकिन जब हम उसे ये बताएंगे कि "मंदिर क्यों जाना चाहिए" "मंदिर जाने से क्या होता है" हम मंदिर भगवान जैसा बनने के लिए जाते हैं ये बताने का काम हमारी पाठशाला करती हैं। यद्यपि ये बातें बच्चे की माँ भी बता सकती हैं मगर माँ के लाड़ प्यार के आगे सब एकमेक हो जाता है उसके लिए पाठशाला और उसके कठोर शिक्षक को होना सबसे जरूरी है।
लाड़-प्यार के कारण आज बच्चे घर में संस्कार नहीं सीख पाते इसलिए पाठशाला का उद्देश्य संस्कार देना होना चाहिए। आज जैन बच्चे ही कम उम्र में नशे के आदी होने लगे हैं। सिगरेट, शराब का सेवन बड़े शौक से करने लगे हैं। इन्हें छोड़ने की सीख विद्यालय सूचनात्मक तौर पर देते हैं मगर पाठशाला इनसे कैसे दूर हों इसका उपाय भी करती हैं।
वर्तमान समय को सबसे बड़ी विडंबना ये है कि बच्चे जिनेन्द्र देव को तो मानते हैं मगर जिनेन्द्र देव की एक नहीं मानते। जिन का मार्ग क्या है उनका सच्चा उपदेश क्या है यह जब तक पाठशाला के माध्यम से बच्चों को समझाया नहीं जाएगा तब तक जैन धर्म के सच्चे स्वरूप को समझ नहीं पाएंगे।
पाठशाला को पढ़ाने का उद्देश्य नई जनरेशन के अनुसार होना चाहिए। भाषा उनके अनुसार हो ये जरूरी है मगर सिद्धांतों में कोई फेरफार संभव नहीं है। आज के बच्चों को न समझ पाने का कारण जनरेशन गैप है अगर हमें उसको भरना है तो हमें बच्चों के स्तर पर आकर सोचना होगा और फिर पाठशाला का उद्देश्य स्थापित करना होगा जिससे बच्चों में अच्छे संस्कारों की नींव रखी जा सके।
जब हम पाठशाला पढ़ते थे तब एक सबसे अच्छी योजना शुरू हुई थी "कंठपाठ योजना"
जिससे हमने हर स्त्रोत्र, पाठ, को कंठस्थ कर लिया था। उन सभी कंठस्थ चीजों का मतलब उस समय नहीं पता था मगर अब जब उनको अर्थ सहित पढ़ते हैं तो समझ आता है कि उस समय हमने एक बहुत अद्भुत काम को किया था। जब हमारे पास जिनवाणी उपलब्ध नहीं होती फिर भी हम कंठस्थ पाठ को दुहरा लेते हैं और हमारा चित्त निर्मल हो जाता है। बच्चों को मेरी भावना, पाठ, स्त्रोत  कंठस्थ कराना भी पाठशाला का उद्देश्य होना चाहिए। और जब हम प्रदर्शन को छोड़कर पाठशाला के प्रयोजन को ध्यान रखेंगे तो निश्चित रूप से पाठशाला बच्चों के लिए भविष्य में स्मरण योग्य होगी। किसी भी प्रकार के दिखावे में या प्रतिस्पर्धा में न आकर अपने अपने विजन को क्रिस्टल क्लियर रखना होगा।
स्कूल हमें माता-पिता को अंग्रेज़ी में क्या कहते हैं ये तो सिखाते हैं मगर माता- पिता का सम्मान करना, बड़े-बुजुर्गों के पैर छूना ये सिर्फ हमारे संस्कार दर्शाते हैं और वह संस्कार ही बच्चों को देना पाठशाला का ध्येय होना चाहिए।
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पाठशाला के अध्यापक की विशेषताएं- (व्यक्तिगत अनुभव)
पाठशाला की एक बहुत महत्वपूर्ण कड़ी होती हैं पाठशाला के अध्यापक!
अध्यापक की सामान्य विशेषताएं तो सब जानते हैं कि कैसे होना चाहिए मगर पाठशाला पढ़ाने वाले अध्यापक कैसे हों ये ध्यान देने योग्य बात है
1. अध्यापक जो विषय पढ़ा रहा है या जैसा पढा रहा है उसको भी वैसा होना चाहिए। आज कमी यही है कि कथनी और करनी में अंतर दिखाई दे रहा है।
जैसे मैं भोपाल की पाठशाला में पढ़ाता हूँ और मैन बच्चों को सिखाया कि आलू नहीं खाना चाहिए और दूसरे ही दिन चांट के ठेले पर चांट खाने पहुँच गया तो बच्चों पर क्या संदेश जाएगा इसलिए शिक्षक को भी उन चीजों का पालन करना चाहिए जो वो बच्चों को सिखाना चाहता है।
2.अध्यापक की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता होती है उसकी "पढ़ाने की शैली"
अध्यापक के पढ़ाने की शैली ही उसे बच्चों से जोड़ती है। अगर अध्यापक रोचक ढंग से कठिन विषयों को भी सरलता और रोचकता से पढ़ा रहा है तो बच्चे भी शिक्षक का साथ देते हैं।
3. शिक्षक को अपना विषय पढ़ाते वक्त नए-नए उदाहरणों को जो वर्तमान से रिलेट करते हों बच्चों को बताकर उसके माध्यम से विषय को समझाना चाहिए।
4. शिक्षक पढ़ाने वाले विषय को एक बार अगर खुद पढ़कर आता है समझ कर आता है तो बच्चों को उदाहरण के साथ समझाने में आसानी होती है।
5. अध्यापक को बच्चों के साथ ज्यादा फ्रेंडली नहीं होना चाहिए नहीं तो बच्चें फिर उनकी बात नहीं सुनते और सिर पर चढ़ने लगते हैं।
6 अध्यापक अगर बच्चों को एक्शन के साथ पढ़ाये तो बच्चे जल्दी सीखते हैं। पाँच पाप के नाम अगर एक्शन के साथ पढ़ाते हैं तो बच्चों को जल्दी याद हो जाते हैं और बच्चे पाँच पाप के नाम भूल भी जाएं फिर भी एक्शन उनको याद रहती है जिससे वो पाँच पापों के मूल भाव को समझ जाते हैं और इन्हें छोड़ने का, त्यागने का प्रयास करते हैं।
7. शिक्षक समय का पाबंदी होना चाहिए क्योंकि अगर शिक्षक समय का पाबंदी नहीं होगा तो बच्चों पर गलत प्रभाव जाता है इसलिए बच्चे बोलते हैं कि "ये तो लेट ही आते हैं"
8. एक वाक्य दुहराया जाता है कि वो शिक्षक बहुत इम्पोर्टेन्ट होता है जो विषय से हटकर भी चीजें बताता है सिखाता है जो हमारे जीवन के लिए बहुत जरूरी होती हैं।
आज बच्चों में आत्मविश्वास की बहुत कमी देखी जाती है जिससे बच्चे किसी भी बात को कहने में हिचकिचाते हैं वो सही बात भी बोल नहीं पाते इसलिए शिक्षक का ये कर्तव्य है कि वो बच्चों में आत्म विश्वास विकसित करे। बच्चों को संस्कारित, तनावमुक्त रखने का भी गुण शिक्षक में होना चाहिए।
9. अध्यापक की पढ़ाने की शैली बहुत प्रभावित करती है। जब बच्चे उनसे कनेक्ट करने लगते हैं तो यही कहते हैं कि हमें इन टीचर से पढ़ना है ये अच्छा पढ़ाते हैं। अध्यापक को हँसमुख, थोड़ा मज़ाकिया, और थोड़ा फ्रेंडली होना चाहिए। क्योंकि शिक्षक अगर गुस्सेल होगा बात-बात पर गुस्सा करेगा तो बच्चे शत प्रतिशत उनसे नहीं पढ़ना चाहेंगे। इसलिए शिक्षक को बच्चों को हर तरह से काबू में रख सके ऐसा होना चाहिए।
● वर्तमान समय अनुसार किस पद्धति से बच्चों को पढ़ाया जाए-
समय बदल रहा है तो समय के साथ पढ़ाने के तरीके भी बदल रहे हैं और हमें भी उन तरीको पर ध्यान देना चाहिए।
1. बच्चों को अब आसानी से पढ़ाने का आसान तरीका है "प्रोजेक्टर"
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प्रोजेक्टर के माध्यम से हम ppt द्वारा बच्चों को पढा सकते हैं। कुछ शिक्षाप्रद कहानियां दिखा सकते हैं। क्योंकि बच्चे बोलने से ज़्यादा देखने से सीखते हैं। पानी छानने की विधि, मैगी क्यों नहीं खाना चाहिए आदि ऐसी चीजें जब हम बच्चों को दिखाते हैं तो वो इनसे ज़्यादा प्रभावित होते हैं और सीखते हैं।
2. पाठशाला पढ़ाने की पद्धति में सबसे पहला लक्ष्य पाठशाला के माध्यम से जीवन जीने का तरीका कैसे विकसित करें ये होना जरूरी है।
3. हर दिन या हर हफ्ते हमारे महापुरुषों की एक शिक्षाप्रद कहानी बच्चों को जरूर सुनाए या प्रोजेक्टर के माध्यम से दिखाए जिससे बच्चों में कठिन परिस्थितियों में भी जीवन जीने का तरीका विकसित होता है।
4. छोटे बच्चों को एक्शन से पढ़ाना बहुत अच्छी पद्धति है। इससे बच्चों को चीजें जल्दी याद हो जाती हैं। शब्द भूल भी जाएं मगर उनके एक्शन याद रहते हैं
5. बच्चों को आसानी से पढ़ाने के लिए विषय कितना भी कठिन हो उसको सरल भाषा में पढ़ाना चाहिए। नए-नए उदाहरण खोजकर जो वर्तमान में अत्यधिक प्रचलित हों उनके माध्यम से किसी भी बात को, सिद्धान्त को आसानी से समझाया जा सकता है।
6. अगर किसी आपातकाल के कारण पाठशाला नहीं लग पा रही हो तो ऑनलाइन पढ़ाने की व्यवस्था करनी चाहिए। zoom एप के जरिये भी अब ऑनलाइन पाठशाला पढ़ाना संभव और आसान हो गया है।
7. पाठशाला में पढ़ाने के लिए बच्चों का मनोबल बढ़ाने उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए पुरुस्कार की पद्धति सबसे अच्छी है।
पंडित टोडरमल जी ने भी मोक्षमार्ग प्रकाशक के चरणानुयोग के व्याख्यान के विधान में लिखा है कि "लालच देकर भी धर्म में लगाया जाता है" यह बिल्कुल सत्य कथन है। छोटे छोटे बच्चों को पुरुस्कार का लालच देकर धर्म की बात समझा सकते हैं लालच बुरी बला है ये भी समझा सकते हैं। टोडरमल जी आगे कहते हैं कि "कड़वी दवाई को बताशे में रखकर बच्चों को पिलाया जाता है" वैसे ही हम जैनधर्म की सच्ची बातों को बतासे अर्थात पुरुस्कार देकर समझा सकते हैं। जिससे बच्चों में भी विषय को समझने का उत्साह और रुचि बरकार रहती है। फिर समझ बढ़ते ही लालच छोड़कर बच्चे विषय पर ध्यान देते हैं।
8. पाठ, स्त्रोत आदि कंठस्थ कराना बहुत जरूरी है जिससे बच्चों की स्मरण शक्ति भी तेज होगी और जुबां पर जिनेन्द्र देव का नाम रहेगा चाहे कैसी भी परिस्थितियां हों।
9. बच्चों के लिए सबसे उदासी का क्षण वो होता है जब हम उनकी तुलना एक दूसरे से करने लगते हैं। सीख देना अलग बात है मगर दूसरे बच्चे से तुलना करके उसको नीचा दिखाना ये सबसे बड़ा अपराध है फिर वो बच्चा कभी प्रश्न नहीं पूछेगा और अपने आप को कमजोर ही समझेगा।
10. सप्ताह के अंत में खेल- प्रतियोगिता जरूर होना चाहिए जिससे बच्चों को मोटिवेशन भी मिलता है। खेल जैन धर्म से सम्बंधित होना चाहिए और बहुत हैं।
तथा रविवार के दिन पूजन और भक्ति करने का संस्कार भी बच्चों को देना चाहिए।
धन्यवाद! जय जिनेन्द्र!

                 सोमिल जैन "सोमू"

ये ब्लॉग अभी अधूरा है और इसे पूरा आप बनाएंगे। कुछ बातें जो आपके दृष्टिकोण से इसमें बाक़ी रह गईं हैं वो आप लिख भेजिए या कमेंट बॉक्स में लिख दीजिये। आपके अनुभव और विचारों को इस ब्लॉग में आपके नाम के साथ संलग्न किया जाएगा जिससे पाठशाला को और भी मजबूत कैसे बनाये उससे सीख मिलेंगी।

1.
पाठशाला तो बच्चों को पढ़ा देगी पर पाठशाला भेजने का काम परिजन का होता है । आज कल माता पिता ये बोलकर नही भेजते की एक ही दिन तो छुट्टी मिली है बेचारे को आज नही खेलेगा तो कब खेलेगा । दोपहर में आता है फिर खाता है फिर होम वर्क फलाना ढिमकान वाले बहाने तैयार है । आज अगर हम इस एक दिन का सोचेंगे तो बच्चे हमारे बूढ़े दिनों का नही सोचेंगे फिर कल यही वो भी कहेंगे । मम्मी एक ही दिन छुट्टी मिली है आज मोवी देखने नही जायँगे तो कब जायँगे आपको मंदिर जाने की पड़ी है । अगर आप कहेंगे कि ऑफिस जा रहे हो तो बीच में मंदिर छोड़ देना तो यही कहेंगे कि मंदिर उल्टी साइड पड़ता है हम लेट हो जाते है। पाठशाला जाना आज जितना बच्चो के लिए जरूरी है उतना ही आपके आने वाले कल के लिए भी जरूरी है🙏🏻🙏🏻🙏🏻

                             संयम शाह शास्त्री, कवि, लेखक,


2.
 जीवन की प्राथमिक सीढ़ी ही पाठशाला होती है,  जहाँ पर बीजरोपड़ किया जाता है उसके बाद उसका जो फल अंकुरित होता है वह जिंदगीभर साथ रहता है, पाठशाला की डोर को हम तभी पकड़ सकते है जब बच्चों को शुरुआत से ही यह संस्कार दिए जाये क्योंकि आजकल की जो पीढ़ी है उसमें ऐसा कम देखा जा रहा है जिस घर में पुर्वजों के अनुसार यह सब चल रहा है यो वैसा हो रहा है लेकिन जो बड़े बड़े महानगरों में आजकल जैनी बच्चे है जो नाम के आंगे जैन लिखते है उनको यही नही पता होता कि जैन क्या होते है, णमोकार महामंत्र तो गिर बिलकुल भी नही आता, इसीलिये वर्तमान में बहुत सी टेक्नोलॉजी के माध्यम से हर जगह यह शिविर इत्यादि लग रहे जिनसे बच्चों में यही से अच्छे और सच्चे संस्कार पैदा होंगे इसीलिये छोटे ही या बड़े पाठशाला नही कभी नही छोड़नी चाहिए, पुराने समय में गुरुकुल होते जहाँ गुरूजी और शिष्य होते थे वहाँ गुरूजी छोटे से विद्यार्थियों को अच्छे संस्कार, विकसित कौशल बनाते थे ऐसे ही धार्मिक पाठशाला हमे अंदर एवं बाहर से सर्वसुविधायुक्त बनाती है, अतः पाठशाला जीवन के लिए बहुत ही उपयोगी है और संघर्ष से जीतना भी सिखाती है
   
                         *सिद्धांत जैन शास्त्री सिद्धू*
3.
पाठशाला का उद्देश्य संस्कार ही नहीं अपितु हमारा जीवन कैसा हो यह भी होना चाहिए ।
क्योंकि संस्कार बिना सुविधाएं पतन का ही कारण होती हैं।
बच्चो में बचपन से ही अच्छी आदते डालना माता पिता का काम है ही व पाठशाला का भी  इसमें बहुत रोल होता हैं।
पाठशाला जाने से बच्चों में गहरे संस्कार आते है। तथा बच्चो में बात करने की  विनम्रता होती हैं।
वर्तमान समय में देखा गया है कि
आजकल के बच्चे पाठशाला छोड़ सिनेमा घर जा रहे हैं। 
इसका क्या कारण हैं।
इसका यही कारण हैं उनके माता पिता जो बच्चों को पाठशाला न भेजकर लौकिक एक्टिविटिज यानी डांस क्लास, स्पोर्ट्स क्लास में भेजना और उनकी एक जिद पर फोन दिलाना भी यह एक कारण है जिससे बच्चे  पाठशाला छोड़ सिनेमा में इंटरेस्ट लेने लगे।
तो सर्वप्रथम माता पिता का भी कर्तव्य होना चाहिए कि वो अपने बच्चो को पाठशाला भेजें।
पाठशाला में बच्चो को जैनधर्म की कहानियां सुनाकर महापुरुषों से अवगत कराना चाहिए।
बाकी आपने बहुत अच्छा बताया है ही 
अतः पाठशाला का उद्देश्य बच्चों का लौकिक जीवन सदाचारमय हो, शांति का जीवन हो, तथा अभिभावकों का जीवन भी शांतिमय बीते। 

ऐसी मेरी भावना है।
जय जिनेन्द्र🙏🏻
 आत्मार्थी अदिति जैन कोटा, राजस्थान

4.


जय जिनेंन्द्र
रहे भावना ऐसी मेरी सरल सत्य व्यवहार करुं,
बने जहाँ तक इस जीवन में औरों का उपकार करूं।
 अपने बच्चों के बारे में हम कितना कुछ नही सोचते उनके भविष्य को लेकर माता-पिता कितने चिंतित भी रहते है,उनकी दैनिक ज़रूरतों को लेकर भी कभी किसी चीज़ की कमी न होने पाए ऐसी  बेटा/बेटी अच्छे स्कूल में पढ़े उसका भविष्य उज्जवल हो उसके सारे सपने पूरे हों यही कोशिश प्रत्येक माता-पिता की होती है और उनका सपना पूरा करना ही माता-पिता का सपना बन जाता है।
 चलो मान लिया हमने उसे बहुत मेहनत करके अच्छे स्कूल में पढ़ाकर एक बहुत काबिल इंसान बना दिया,जैसा जैसा हमनें सोचा था ठीक वैसा ही हुआ परन्तु विचारणीय बात तो यह है कि क्या यहीं हमारा कर्तव्य पूरा हो गया?
  मैने तो आज भी ऐसे कई पढे लिखे महापुरुष देखे है,जो अपने कार्य में भी बहुत अव्वल है लेकिन अपने परिवार के साथ उतने ही विछिन्न है जी हां जिन माता पिता ने कड़ी मेहनत की,इस योग्य बनाया आज वही बेघर कहीं वृद्धाश्रम में बेसहारा देखा है तो कहाँ गयी वह स्कूली शिक्षा?
मात्र स्कूली शिक्षा ही उपयोगी नही है अपितु उसके साथ धार्मिक संस्कार भी उतने ही उपयोगी है जितने की दैनिक जीवन में रोटी,कपड़ा और मकान...
 ये बात हम सभी को भली भांति पता है संस्कारों के बीज बच्चों को पाठशाला में विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों,प्रतियोगताओं के माध्यम से अंकुरित किये जाते है।
वास्तव में धार्मिक शिक्षा के बिना जीवन असार है
हम स्वयमं भी जुड़े और बच्चों में भी संस्कारों की नींव डालें।
उक्ति भी है-
*"संस्कार विहीन मनुष्य भी पशु के समान है"* जीवन हमारा है और निर्णय भी।

शास्वत जैन शास्त्री, बड़ा मलहरा
                                   

मेरे महावीर

  


 जब जब हिंसा से भरा देश।
तब तब तुमने उपदेश दिया।
हिंसा से धर्म नहीं होता।
सबको यह शुभ संदेश दिया।
हिंसा तो पाप कहाती है फिर
इसको धर्म कहें कैसे?
यह श्रद्धा दुख का कारण है,
यह कारज जीव करे कैसे।

 

पर में कर्तत्व मिटाने का
उपदेश दिया महावीरा ने।
अहिंसा,अचौर्य, अपरिग्रह का
सद्ज्ञान दिया युगवीरा ने।

 

सुख शांति फैले विश्व में।
हर मन निरन्तर भावना।
तल्लीन हो निज आत्म में
है यही शिवपद पावना।

 

तुमने हमें सत्मार्ग पर
चलना सिखाया प्रेम से।
छोटे बड़े की भावना
त्यागो महज इस प्रेम  से।
सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह की
बहुत जरूरत देश को।
पाखंडों का खंडन करने
धारे तुम मुनिवेश को।
आकुलता का, व्याकुलता का
क्षण में क्षय हो निज ध्यान से।
सर्वोदय तीर्थ प्रणेता तुम।
तुम महावीर निज ज्ञान से।
अतिवीर सन्मति वर्धमान
महावीर वीर गुणमय विशाल।
तुम शांति पुजारी शांति दूत
तुम जानत हो सब कुछ त्रिकाल।

 

तुम इंद्रियों को जीतकर
हितकर जितेंद्रिय हो गए।
कर्माष्ट शत्रु विनाश कर।
इस विश्व के प्रिय हो गए।

 

जग मैं जब अत्यचार बड़ा।
भीषण हिंसा का जन्म हुआ।
अहिंसा, दया की बात कही
तब महावीर स्मरण हुआ।
अज्ञान तिमिर जब छाया था।
हिंसा ने जब ललकारा था।
तब शांतिदूत बनकर आये।
सब ओर तेरा जयकारा था।
वचनों में आपके मधुरामृत।
हो गया मेरा जीवन कृत कृत।
है धन्य सफल तुम सन्यासी।
तेरी वाणी से बुध झँकृत।

 

अंतिम शासन नायक जिनेश
तुमको वंदन शत कोटि नमन।
तुम युग युगांतर पूजित प्रभु।
तुम मेरे जीवन का उपवन।
सब जीव बराबर हैं जग में
कोई छोटा न बड़ा प्रभु।

 

दो शुभाशीष "सिद्धार्थी" को।
शत बार नमन है वीर प्रभु।



Friday, May 19, 2023

नया युग

 आज मानुष गिर गया है,चन्द्र पैसो के लिए वह।

असमंजस में घिर गया है,चन्द्र सुविधा के लिए वह।

आज रिश्ते टूटते हैं,अपनों के अपनों के द्वारा।
वेवजह ही रुठते हैं ,कभी रिश्ता था जो प्यारा।

तू मुसाफिर सो रहा है,पल ही पल क्यों रो रहा है।
नहीं लगता है जगासा,हर समय क्यों है उदासा।

पूछता हूँ ये समंदर,छिपे मोती तेरे अन्दर।
बता कितने ढूढ़ता में,वेवजह क्यों डूबता में।

ऐ हवा पुलकित फिजा,ऐ मेरे परवरदिगार।
ऐ मेरे दिल तू बता, क्या तुझे है इनका पता।

रुक मुसाफिर अब सम्हल जा,चेत कर फिर से बदल जा।
रहो सबके साथ मिलकर,यही मतलब इस पहल का।


जाग उठ और खड़े हो,तुझमें छुपा है नूर सा।
ऐलान कर दे इस जंहा को,बनजा तू कोहिनूर सा।

दिखादे अपनी दिलासा,फहरा दे अपनी पताका।
मुश्किलो में नहीं डरना जीत जायेगा जंहा को।

सत्य पालेगा अगर तू मुश्किलो से लड़ेगा तू।
बनेगा तू एक सम्मा और बनके जलेगा तू।

दोस्त बनकर सभी से रह,बैर की न हो निशानी।
प्यार के अल्फाज निकलें चेन से हो हर कहानी।

क्यों न हम रिश्ते बनाये,खुशनुमा दीपक जलाये।
प्रेम की छाया में रहकर, क्यों न हम मंडप सजायें।।।

   
                                       सोमिल जैन "सोमू"

Thursday, May 18, 2023

एक पाठक का तोहफा मेरे लिए🌻❤️


 

NEVER GIVE UP👍😊

"तुम हम सबकी प्रेरणा बन गए"

जिंदगी की राहों में कई मोड़ आए
तुम गिरे भी कई दर्द भी पाए
लेकिन सबको अपने अंदर दबा
तुम खुश रहे चेहरे पर मुस्कान सजाए
जिसने हजार दर्द सहकर भी
जिंदगी के सच अपनाएं
मन भारी होने पर भी
आंखों के आंसू छिपाए
गम और उदासी की धूप सहकर भी
खुशी की छांव में लाकर
सबको तुम खूब हँसाए ।

कई राहों पर जिंदगी लेकर गई तुम्हें
लेकिन कई नई राहें खुद से तय की तुमने
जिंदगी के उतार-चढ़ाव को तुम ने बखूबी संभाला
अनकहे दर्द सहकर भी खुद को संभाला
जब था चारों तरफ अकेलेपन का अंधकार काला
जब थी राहें सुनसान
नजर आया न कोई
तब तुमने खुद को साथी बनाया
खुद से ही बातें की
और खुद को ही मनाया।

जिंदगी ने कई इम्तहान लिए
लेकिन कहते हैं ना
जिसके हौसले हो बुलंद
जुनून कुछ कर दिखाने का गहरा
तो मुश्किलें भी
घुटने टेक दिया करती है सामने उनके
इसी तरह जिंदगी ने कई इम्तहान लिए
लेकिन तुमने सब पार किए
समय और नसीब के तुम मोहताज़ ना रहे
सब इम्तहानों में तुम अव्वल आए ।

सलाम तुम्हारे हौसलों को
सलाम तुम्हारे जुनून को
सलाम तुम्हारी मेहनत को
तुम सचमुच बहुत कुछ कर गए
तुम सचमुच हम सब की प्रेरणा बन गए।।

Hats off to you Author and shastri somil ji 🙏🙏
🙌🙌🙌🙌🙌🙇🙇

अंत में बस इतना ही कहना चाहूँगी ....
तेरे नसीब की बारिशें ना कहीं बरसी है ना बरसेंगी
तेरे नसीब की बारिशें ना कहीं बरसी है ना बरसेंगी
तू चलते जा बढ़ते जा ....
जब तेरे हौंसलें और जुनून को वे देखेंगी
जब वे तेरे हौंसले और जुनून को देखेंगी
देख लेना तुम ..
जो तेरी है वह तेरे छत पर ही बरसने को तरसेंगी।

Hearty Best wishes for your life journey😇😇
क्योंकि आपके हाथों में मेहनत की लखीरें हैं
इसलिए आप सफलताओं के पीछे नहीं
सफलताएँ आपके पीछे हैं।😊🙌🙏
पाठक
✒️छवि जैन

कलम क्या-क्या लिखाए

ई-कल्पना पत्रिका में कैसे छपवाएं अपनी कहानियां : मानदेय के साथ प्रोत्साहन भी, पूरी प्रक्रिया जानिए....लिखो और कमाओ

  ई-कल्पना पत्रिका युवा लेखकों के लिए बेहतरीन मंच है। यह पत्रिका ना सिर्फ लेखक की रचना प्रकाशित करती है बल्कि उचित मानदेय भी देती है। जो कलम...