उतार-चढ़ाव जिंदगी का हिस्सा हैं उन्हें स्वीकारना ही समझदारी है। इन शब्दों के मायने शब्दशः अब समझ में आए हैं। फिलहाल ख्वाबों का खंजर सीने को चीर रहा है। कुछ चीजें बदल रही हैं बदलेंगी लेकिन बहुत कुछ बदलना है पर सब्र का बांध टूट रहा है। कितनी किसकी इज्जत करनी पड़े, अपमान कब तक और कितना सहा जाए। विचारों का अंतर्द्वंद्व अजीब सी मिसमिसाहट भरे आंखों ने नीचे और भी गड्ढे कर रहा है।
कुछ चीजें कभी बदलती नहीं हैं जैसे कि लोगों की आपके प्रति सोच....उन्हें लगता है कि तुम वही पहले जैसे हों, आप विरोध करो तो बेइज्जत होते हैं और उस समय आपको पता चलता है कि कोई आपके साथ नहीं हैं बस अब तमाशबीन बनकर आपका तमाशा बनते देख रहे हैं। बस वो समय होता है जब आपको सब्र सीखना होता है क्योंकि कभी- कभी जवाब मुंह से नहीं दिए जाते है, आपकी मेहनत जवाब देती है वो भी बहुत जोर से......
ये चीजें इसलिए समझ आईं क्योंकि उस वक्त मैंने सब्र किया, गुस्से को कंट्रोल किया और पूरा जोर आंसुओं को रोकने में लगाया तब जाकर समझ आया कि दार्शनिक बातें कहने-सुनने में कितनी अच्छी लगती हैं लेकिन अपनाने में, अपने कैरेक्टर में लाने में पूरा जीवन लग जाता है। शायद इसलिए जीवन जंग है किसी और से नहीं बल्कि खुद से...बहुत दिनों पहले दो लाइन पढ़ी थीं जो सब दुख दर्द हर लेती हैं...लिखा है कि 'जिन मुश्किलों में मुस्कुराना हो मना, उन मुश्किलों में मुस्कुराना धर्म हैं.....'
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