बात 2019 के अगस्त शिविर की है। आज से 4 साल पहले मैं नया नवेला लेखक एक महान व्यक्तित्व को अपना नमूना दिखाने अपनी होस्टल जयपुर शिविर में पहुंचा था। तमन्ना थी कि अपना लिखा उस व्यक्तित्व को दिखाऊँ जिससे ही सब कुछ सीखा था। मुझे पता था ये सागर को बूंद, सूरज को दीपक दिखाने जैसा है लेकिन बालक बुद्धि मैं क्या करता ! शिविर में यहां-वहां उनसे टकराया और बोला भी कि भाईसाब मैंने बुक लिखी है आपको देना है कब आ जाऊं आपके पास बुक देने तो उनके मुंह से सहज ही निकलता 'कभी भी ले आना'। विद्यार्थियों के लिए हमेशा उपलब्ध रहने के कारण ही शायद आज सारे विद्यार्थी उनके जाने से टूट चुके हैं। मैंने उनको बच्चों से कभी ये कहते नहीं सुना कि 'मेरे पास टाइम नहीं है' ऐसा व्यक्तित्व जो हमेशा तत्वज्ञान के लिए समर्पित रहा उसका बखान इन चंद शब्दों से नहीं हो सकता। और आखिरकार शिविर की एक शाम मैंने उनको देखा और पहुंच गया उनके पास अपनी किताब लेकर बिना संकोच किये। ये वो पल था जब उन्होंने किताब हाथ में लेकर बार-बार उसे देखा फिर मुझे देखा और कंधे से अपनी तरफ खींचकर शाबाशी दी, वहीं खड़ी संस्कृति भाभी ने भी किताब की सराहना करके मेरा उत्साह दुगुना कर दिया। भले मेरी किताब हिंदी उपन्यास के रूप में थी जो धार्मिक नहीं थी लेकिन विद्यार्थियों की प्रतिभा के कद्रदान भाईसाब हमेशा थे ये उस दिन मालूम हुआ था। आखिर में भाईसाब से ये सुनकर कि 'मैं ये किताब जरूर पढूंगा' मैं आत्मविश्वास के आखिरी लेविल पर पहुंच गया और किताब से बड़ी उपलब्धि मेरे लिए उनकी शाबाशी हो गई।
बस उस दिन के बाद वही थी उनसे आखिरी मुलाकात। जब भाईसाब यहां ज्ञानोदय आये तो बड़ी खुशी हुई थी कि उनसे मिलूंगा लेकिन जिस दिन मैं ज्ञानोदय पहुंचा, वो इंदौर निकल चुके थे तब ऐसा लगा जैसे मेरी सारी खुशी सुमेरु पर्वत से नीचे गिरकर धराशाई हो गई हो।खुशकिस्मत हूँ कि मैं उनका शिष्य था, और ताउम्र रहूंगा क्योंकि उनकी बातें, उनकी यादें, और उनके साथ की एक सुंदर तस्वीर मेरे टूटे आत्म विश्वास को जगाती रहेंगी और कहती रहेंगी " हमारे बाद इस महफ़िल में अफसाने बयां होंगे, बहारें हमको ढूढेंगी ना जाने हम कहाँ होंगे.....
सोमिल जैन 'सोमू'
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